देना चाहता था मैं तुझे एक गुलाब,
किया तूने इनकार और हुए हम बेनकाब,
चाहत थी मेरी ओढ़ लेता मैं तेरा शबाब,
पर अब मयखाने में बैठकर पी रहे हैं शराब.
मेरे दिल के कोने से एक आवाज़ आती है,
कहाँ गयी वो ज़ालिम जो तुझे तड़पाती है,
जिस्म से रूह तक उतरने की थी ख्वाहिश तेरी,
और अब एक शराब है जो तेरा साथ निभाती है.
ना थी उम्मीद ना वादे पर ऐतबार किया,
ग़ज़ब है तेरा फिर भी हमने इंतज़ार किया,
तेरे उस कातिल अदाओं को भूलने की खातिर,
हर रोज़ हर वक़्त हमने शराब पिया.
मैं तो पहले भी था महफ़िल में,
मैं तो अब भी हूँ महफ़िल में,
फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि,
पहले तुम थी,अब ये शराब है महफ़िल में.
7 Comments
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...बधाई...
ReplyDeleteआपका शुक्रिया.
Deleteआपका शुक्रिया.
ReplyDeleteइस पोस्ट की चर्चा, मंगलवार, दिनांक :-29/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -36 पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा
thnks a lot sir..
Deleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteनई पोस्ट सपना और मैं (नायिका )
thnks a lot sir ji..
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।