हमें आदत थी पत्थर के मकानों में ठहरने की,
कभी एहसास ही नहीं हुआ कि दिल सीसे का बना है।
हमारी मोहब्बत का बस इतना सा पैगाम था,
वक़्त -बे -वक़्त उसका मुझ पर ही इलज़ाम था।
ज़माना यूँ तो नाराज़ नहीं था मुझसे पहले कभी,
एक तेरी मोहब्बत के खातिर आज सबके बैरी हो गए।
न जाने कौन सी दवा दे गया था वो हक़ीम,
न ही वो पास आती है, न ही ये मर्ज़ दूर जाता है।
अब मेरे कलम कि दिवानगी रोके नहीं रुकती,
इस मोहब्बत ने हमें भी शायर बना दिया।
हमारी मोहब्बत का बस इतना सा पैगाम था,
वक़्त -बे -वक़्त उसका मुझ पर ही इलज़ाम था।
ज़माना यूँ तो नाराज़ नहीं था मुझसे पहले कभी,
एक तेरी मोहब्बत के खातिर आज सबके बैरी हो गए।
न जाने कौन सी दवा दे गया था वो हक़ीम,
न ही वो पास आती है, न ही ये मर्ज़ दूर जाता है।
अब मेरे कलम कि दिवानगी रोके नहीं रुकती,
इस मोहब्बत ने हमें भी शायर बना दिया।
©नीतिश तिवारी।
11 Comments
Beautiful !
ReplyDeletethanks a lot alka ji
Deleteशायरी मोहब्बत की बहुत सुन्दर |
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteबढ़िया ग़ज़ल......
ReplyDeleteअनु
शुक्रिया अनु जी
Deleteआपका बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteभीतर से जो मोम हैं, बाहर से पाषाण।
ReplyDeleteइन्हीं पत्थरों में कहीं, रमें हुए भगवान।
आपका आभार
Deleteवाह!वाह!वाह!..कितना सुन्दर कहा है..
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।