बैठा रहा मैं एक किरदार सा बनके,
उलझी हुई तस्वीर का आकार सा बनके,
हमारी इबादत कभी मुकम्मल ना हुई,
बीच भवंर मे फंस गये मझधार सा बनके.
मुस्कुराते लबों की पहचान अभी बाकी है,
मचलते हौसलों की उड़ान अभी बाकी है,
समंदर से कह दो किनारों से आगे ना बढ़े,
अभी तो नीव पड़ी है, पूरा मकान अभी बाकी है.
©नीतीश तिवारी
6 Comments
Nice poem :)
ReplyDeletethank u so much
Deletekhoobsurat alfaaz
ReplyDeleteshukriya aapka.
Deleteबहुत खूब मुक्तक ... दोनों असरदार ...
ReplyDeletebahut bahut dhnywaad sir ji...
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।