मैं जीत जाऊं या मैं हार जाऊं,
बस ख्वाहिश यही है कि
मैं दरिया ये पार जाऊं।
मैं किसी के दिल में रहूँ या किसी की यादों में रहूँ,
बस ख्वाहिश यही है कि
मैं अपनों की निगाहों में रहूँ।
मैं उजालों में रहूँ या अंधेरों में भटकूँ,
बस ख्वाहिश यही है कि
मैं अपने मंजिल तक पहुँच सकूं।
मेरा नाम हो या मैं गुमनाम हो जाऊं,
बस ख्वाहिश यही है कि
मैं एक इन्सान बन जाऊं।
©नीतिश तिवारी
8 Comments
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-10-2015) को "स्वयं की खोज" (चर्चा अंक-2118) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका बहुत बहुत धन्यवाद सर.
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद सर.
Deleteसुंदर रचना की प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपका शुक्रिया.
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeletethank you so much.
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।