याद आती है मुझे बचपन की वो होली,
लोगों से भरी हुई वो गली,
और सबके हाथों में गुलाल की थैली।
याद आती है मुझे बचपन की वो होली,
वो पिचकारी में रंग का भरना,
भागते भागते किसी के ऊपर गिरना।
दोस्तों को चुपके से रंग लगाना,
वो मुझे देखकर भाभी का शरमाना,
शरमाती हुई भाभी को रंग लगाना,
और बदले में जी भर के उनसे रंग लगवाना।
याद आती है मुझे बचपन की वो होली,
वो मीठी सी भोजपुरी बोली,
और साथ में हंसी की ठिठोली।
©नीतिश तिवारी।
1 Comments
सुंदर रचना...रंगोत्सव की शुभकामनयें...
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