दर्द का सितम अब मुझसे सहा नहीं जाता,
उस बेवफा को अब भी मैं भुला नहीं पाता।
वो वक़्त ज़ालिम था या वो खुदगर्ज़ थी,
उस दौर के ज़ख्म को मैं मिटा नहीं पाता।
हर साजिशें सिर्फ मेरे लिए ही बनी थी,
अपने कोई ख्वाब को मैं बचा नहीं पाता।
ज़ुल्म की इंतेहा सारी हदें पार कर गयी थी,
अब भी मैं उस ज़ुल्म को भुला नहीं पाता।
दिल टूटने का गम नहीं उसकी रूसवाई से परेशान था,
उसकी शातिर अदाओं का फिर भी मैं गुलाम था।
क़र्ज़ चुका देता पर उसका मोहब्बत ही बेहिसाब था,
उसकी मोहब्बत के खातिर मैं हो गया बरबाद था।
©नीतिश तिवारी।
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