लघुकथा- ट्रेन का सफर।
ट्रेन खुले हुए दो घंटे बीत चुके थे। अभी रात भर का सफर बाकी था। वो सामने वाली सीट पर पिछले दो घंटे से बैठकर किताब पढ़ रही थी। कभी कभी हमारी नजरें मिल जाती थी। जब आप एक लेखक हों और आपके सामने कोई किताब पढ़ रही हो तो बात करने की उत्सुकता तो हो ही जाती है।
हिम्मत करके मैंने पूछ ही लिया, " बड़े ध्यान से आप घंटों से ये किताब पढ़ रही हैं। किस बारे में है ये किताब?"
पहले तो उसने हैरानी से मुझे देखा। फिर जवाब दिया, "कुछ खास नहीं लेकिन आप क्यों पूछ रहे हैं?"
मैंने कहा," मैं भी एक लेखक हूँ और अपनी पहली नॉवेल लिख रहा हूँ।"
फिर उसने मुझे बधाई दी।
अगले कुछ घंटों में हमलोग काफी घुल मिल गए थे। डिनर भी हमने साथ में किया। चूंकि उसे पहले उतरना था इसलिए मुझे सोने से पहले आगे की बात करनी थी। मैंने कहा, "आपने अपना नाम नहीं बताया अभी तक।"
उसने कहा, "मैं सिमरन और आप?"
"जी, मैं राज।"
वो थोड़ी देर के लिए खामोश हो गयी। शायद DDLJ का सीन याद कर रही होगी।
अगले ही पल उसकी खामोशी को तोड़ते हुए मैंने कहा,"आपने हमारी दोस्ती की किताब में पहला चैप्टर तो लिख दिया। लेकिन हम इस किताब को पूरा करना चाहते हैं।" वो मेरा इशारा समझ गयी थी। उसने अपनी पर्स से एक पन्ना निकाला उस पर अपना नंबर लिखा और मुझे देते हुए कहा, " ये लीजिये, ये आपको आपकी किताब पूरी करने में मदद करेगा।" इतना कहकर उसने गुड नाईट बोला और सोने के लिए चली गयी।
©नीतिश तिवारी।
6 Comments
बेहद खूबसूरत
ReplyDeleteआपका शुक्रिया।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-07-2019) को "जुमले और जमात" (चर्चा अंक- 3391) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteसुंदर लघुकथा।
ReplyDeleteआपका धन्यवाद।
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।