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तुम वापस आ जाओ ना!
अब तेरे खयालों की खुशबू दरवाजे से नहीं आती। जब से तुमने मुझसे दूरी बनायी है तब से तुम्हारे खयाल कम आते हैं। दरवाजों से नहीं दरीचों से आते हैं।
घर के आँगन के कोने में पड़ी हुई सिल बट्टे ने भी उम्मीद छोड़ दी है। वही उम्मीद की जब रोज सुबह शाम तुम उस पर मसाले पीसा करती थी । तुम्हारे हाथ पीले हो जाते थे हर रोज। बिल्कुल वैसे जैसे कि हर रोज तुम दुल्हन बनने को तैयार बैठी हो।
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घर के दूसरी तरफ कुएँ के पानी की मिठास भी चली गई है। पहले उसी कुएँ के पानी से सींची गई सब्जियाँ कितनी स्वादिष्ट लगती थीं। अब तो घर की सब्जी भी बाजार जैसी लगती है बिल्कुल बेस्वाद।
तुम्हारे बिन सब कुछ सूना सूना हो गया है।
तुम वापस आ जाओ ना!
©नीतिश तिवारी।
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16 Comments
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 29 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteरचना शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteवाह बहुत खूब। बहुत ही प्याreeaur स्नेहिल मनुहार 👌👌👌👌
ReplyDeleteआपका धन्यवाद।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (30-09-2019) को " गुजरता वक्त " (चर्चा अंक- 3474) पर भी होगी।
धन्यवाद।
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआपका धन्यवाद।
DeleteExcellent thoughts my friends..keep on writing...
ReplyDeleteThanks a lot.
Deleteगहराई से निकले एहसास।
ReplyDeleteबहुत उम्दा।
बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteबहुत बढ़िया..
ReplyDeleteआपका धन्यवाद।
Deleteवाह !लाज़बाब सृजन
ReplyDeleteसादर
बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।