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सौंदर्य की साधना।
काली घटा है घनघोर,
बिजली का भी है शोर,
सियाह-रात ऐसी है कि,
मन व्याकुल है विभोर।
पंख नहीं है उड़ने को,
होश नहीं है चलने को,
वो लथपथ है हुआ बेहाल,
साँस आयी है रुकने को।
पथ पर चलना गिरकर उठना,
करता रहा सौंदर्य की साधना,
आँसू उसके ऐसे बहते,
जैसे कोई गिरता हुआ झरना।
कर्म की ज्योत जलाने को,
निकला था भवसागर पार,
भाग्य की रेखा ऐसी पलटी,
खत्म हो गया जीवन संसार।
©नीतिश तिवारी।
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17 Comments
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआपका धन्यवाद।
Deleteवाह बेहद खूबसूरत
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteगिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में,
ReplyDeleteवो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो, घुटनों के बल चलें.
गिरना-पड़ना, उठना-बैठना तो लगा ही रहता है.
तू उत्थान-पतन की चिंता किए बिना सौन्दर्य की साधना में यूं ही लगा रह !
वाह!
Deleteरचना साझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-11-2019) को "आज नहाओ मित्र" (चर्चा अंक- 3517) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रचना शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteसौन्दर्य साधना य प्रेम साधना आसान कहाँ होती है ...
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण उदगार मन के ...
सही कहा आपने। बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteबहुत बढ़िया!!!!
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteबहुत ही भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteआपका धन्यवाद।
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।