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किस बात की भागमभाग और दौड़ है।

किस बात की भागमभाग और दौड़ है।







लड़खड़ाती उम्मीदों के पैर में,
एक निराशा की जंजीर बंधी है,
दिवा-स्वप्न में वो मशगूल है,
उसको हक़ीक़त की क्या ही पड़ी है।

रात बेईमान हो गयी,
दिन में काले बादल छाए हैं,
खातिरदारी सबकी करे भी तो कैसे,
बिन बुलाए मेहमान घर आये हैं।

सड़कों में गढ्डे हैं मंज़िल भी दूर है,
खुद को साबित करने की लगी एक होड़ है,
ज़िंदगी तो ठहर सी गयी है,
फिर किस बात की भागमभाग और दौड़ है।

©नीतिश तिवारी।


 

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