ऐसा कहा जाता है कि मुसाफिर का काम भटकते रहना है। अगर मुसाफिर को मंजिल मिल जाए तो फिर उसका मुसाफिर होने का वजूद खत्म हो जाता है। तभी तो मुसाफिर को ख्वाबों में खोया रहना अच्छा लगता है। वही ख्वाब जो उसके मुसाफिर होने का एहसास कराते हैं। उम्मीद जिसकी लौ कभी ना बुझने वाली दीये के सहारे रहती है।
मुसाफिर को हर वक्त ख्वाबों का इंतजार रहता है। वो इस इत्मीनान में रहता है कि मेरे ख्वाब मेरे हैं। इस पर किसी का हक नहीं। मुसाफिर इस बात से इत्मीनान रहता है कि जिस ख्वाब ने उसके दरवाजे पर दस्तक दी है वह खिड़की से बाहर नहीं जाएगी। यही सोचकर वह अपने ख्वाबों को मुकम्मल करने में मशगूल हो जाता है और अपनी खिड़की पर एक पर्दा लगा देता है कि उसके ख्वाब सिर्फ उसी के रहे।
मुसाफिर इस बात से बेखबर हो जाता है कि ख्वाब सिर्फ उसी के सगे नहीं है और फिर एक दिन किसी और का हक उसके ख्वाबों पर हो जाता है। कमरे की खिड़की पर लगा ख्वाबों का पर्दा हट जाता है। ख्वाब किसी और मुसाफिर को ढूंढने चले जाते हैं। एक मुसाफिर बेचैन हो जाता है। दूसरा मुसाफिर इंतजार में रहता है। कमरे का दरवाजा बंद पड़ा रहता है। ख्वाबों की खिड़की पर से पर्दा फिर से हटा दिया जाता है।
©नीतिश तिवारी।
6 Comments
जिंदगी ऐसा ही ख्वाब है,.. सुंदर सटीक आलेख ।
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार
(16-11-21) को " बिरसा मुंडा" (चर्चा - 4250) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
ख्वाब बिखरे हैं नए,कि इनमें खो जाऊं,
ReplyDeleteबहका है मन खुमारी से, कि मुसाफिर हो जाऊं।
जीवन सत्य को बयां करती सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteवाह ... सार्थक आलेख नितीश जी ...
ReplyDeleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।