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Aa jao ek akhiri baar | आ जाओ एक आख़िरी बार।
तुम आये नहीं अभी तक? मैंने इश्क़ का तमाशा कब का शुरू कर दिया। तुम्हें ये सब देखने की हिम्मत नहीं हो रही है? बेवफ़ाई करने को तो बड़ी जल्दी हिम्मत आ गयी थी। छोड़कर जाने को तो बेकरार हो रही थी। तो अब क्या हुआ? आ जाओ, एक आख़िरी बार।
तुम्हारे खातिर मैंने महफ़िल जो सजा रखी है। शहर के सारे आशिक़ यहाँ मौजूद हैं। वो भी तो देखें कि सच्चे आशिक़ की बेवफ़ा महबूबा कैसी होती है। उन्हें भी तो पता चलना चाहिए कि सच्चे इश्क़ का अंजाम क्या होता है।
आज तो तुम्हें आना ही पड़ेगा। मेरे ख़ातिर ना सही लेकिन इन आशिक़ों के ख़ातिर। मैं इन्हें बताना चाहता हूँ कि महबूब साथ ना दे तो आशिक़ी छोड़ देने में ही भलाई है। वरना मेरी तरह इन्हें भी बेवफ़ाई की महफ़िल सजानी पड़ेगी, बेवफ़ा का इंतज़ार करना पड़ेगा, खुद के इश्क़ का तमाशा करना होगा।
इंतज़ार में हूँ, पैगाम मिलते ही इत्तला करना।
©नीतिश तिवारी।
8 Comments
मर्मस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26-01-2022) को चर्चा मंच "मनाएँ कैसे हम गणतन्त्र" (चर्चा-अंक4322) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteबेहद हृदयस्पर्शी
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteअत्यंत मार्मिक...!
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।