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उस दिन तुम्हारे होने से भी खाली खाली लग रहा था। हरे पत्ते भी सूखे नजर आ रहे थे। फूल सूख गए थे, कांटे बिलबिला रहे थे। शाम की धूप भी तपन जैसी महसूस हो रही थी।
कितना कुछ होते हुए भी सब कुछ खोखला नजर आ रहा था। ये तुम्हारे चेहरे पर उदासी के भाव ने मुझको भी जैसे तन्हा कर दिया था। दोस्त माखौल उड़ाने लग गए थे। वह बस्ती वह शहर मुझे ताने मार रहे थे। जवाब देता तो किस किस को देता। अपनी सफाई किसको सुनता। मेरी मोहब्बत जवान होकर भी बूढ़ी थी। तुम्हारे होने ना होने की दास्तान बहुत लंबी थी।
मैं कलम लेकर कुछ लिखने बैठा, अल्फाज कांपने लगे थे, स्याही आंसू बहा रहे थे। तुम सामने बैठ कर भी न जाने कहां खोयी थी। इस पल की दुआ तो मैंने नहीं की थी। इतना दर्द सहने का तो इल्म न था। मैं कुछ भी तो कर ना सका। मैंने मोहब्बत जो की थी।
©नीतिश तिवारी।
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तुम सामने बैठ कर भी न जाने कहां खोयी थी। इस पल की दुआ तो मैंने नहीं की थी। इतना दर्द सहने का तो इल्म न था। मैं कुछ भी तो कर ना सका। मैंने मोहब्बत जो की थी। बात सीधे आपके दिल से निकली है नीतिश जी। ऐसी बातों को वही ठीक से समझ और महसूस कर सकते हैं जो ख़ुद दर्द-ए-दिल का तजुर्बा रखते हैं।
ReplyDeleteजी बिल्कुल। बहुत बहुत धन्यवाद!
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