कौन जानता है सच और झूठ के बीच का फासला,
किसने गढ़े हैं इन दीवारों पर एक विरहन की व्यथा।
कौन मेरे अरमानो की अर्थी को कंधा दे गया,
किसने मेरे दुख को अपना दुख समझा है?
ज़िन्दगी के सारे सबक मेरे हिस्से ही क्यों आए,
मैंने ही गहरे समंदर में गोते क्यों लगाए?
समंदर मुझे डुबाने की साज़िश करता रहा और,
कुछ लोग किनारे पर बैठकर क्यों मुस्कुराए?
मेरी दहलीज़ यूँ वीरान क्यों पड़ी है,
आँसू मुझसे इतनी वफ़ा क्यों कर रहे हैं?
तड़प और तन्हाई बाराती बनकर आये हैं,
मेरी ही बर्बादी का जश्न क्यों हो रहा है?
ख्वाब टूटने से पहले जुड़ क्यों नहीं गए,
बिखरे मोतियों को किसी ने समेटा क्यों नहीं?
मेरी फ़ितरत में तो बेवफ़ाई कभी शामिल ना थी,
फिर किसी को मुझ पर जरा सा भी भरोसा क्यों नहीं?
©नीतिश तिवारी।
6 Comments
हर एक दुखी हृदय की बात कह दी आपने...
ReplyDeleteदुख में बस यही तो लगता है कि ये सब मेरे साथ ही क्यों ।
बहुत सुन्दर सृजन ।
बहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपका धन्यवाद!
Deleteवाह नीतिश जी, ख्वाब टूटने से पहले जुड़ क्यों नहीं गए,
ReplyDeleteबिखरे मोतियों को किसी ने समेटा क्यों नहीं?...क्या खूब कहा...शानदार
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।