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कमरे की दीवारें
ये छत, लाल पर्दा
सब मुझे घूरते हैं
सब जानने की कोशिश
में लगे हैं
कि ये अकेला
तन्हा होकर भी
उनके साथ क्यों है
सजीव प्राणी भी आजकल
निर्जीव जैसा व्यवहार
करने लगे हैं
इसलिए निर्जीव का ही
साथ देना मैंने उचित समझा
कम से कम ताना
तो नहीं मिलता
ये मेरे सपनों का
सौदा तो नहीं करते
उन्हीं सपनों का ज़िक्र
कर रहा हूँ
जो मैंने देखे थे
थोड़ा सा अपने लिए
थोड़ा किसी और के लिए
©नीतिश तिवारी।
9 Comments
मेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह!सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद!
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ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (११-०५-२०२३) को 'माँ क्या गई के घर से परिंदे चले गए'(अंक- ४६६२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद!
Deleteसजीव प्राणी भी आजकल
ReplyDeleteनिर्जीव जैसा व्यवहार
करने लगे हैं
इसलिए निर्जीव का ही
साथ देना मैंने उचित समझा
बहुत सुन्दर... सार्थक
वाह!!!!
बहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteये छत ये लाल परदा!
ReplyDeleteजीवन संदर्भ पर गहन अभिव्यक्ति
बहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।